Thursday, 16 July 2020

गलवान का उधेड़बुन

मिश्राजी, शुक्लाजी दोनों का मन बड़ा उचाट था। कोविद की मार ऊपर से चीनीयों का दुराचार दोनों को विचलित कर रहा था। मिश्राजी उदासिन मन बोले, “दिन ठीक नहीं जा रहा है, कल  रीग्डवेद का पाठ करायेगें।हमारे पुजारी, दूबेजी, रीग्डवेद श्रद्धापूर्वक वाचते हैं। कल आईएगा ।” अगले दिन रीग्डवेद का पाठ पूर्ण निष्ठा से सम्पन्न हुआ। प्रफुल्लित मन सभी सोफ़ा पर पसर गए। बातों का सिलसिला मिश्राजी ने शुरू किया। 
“दूबेजी,आत्म विभोर हो गया। आपके फ़र्राटेदार बहाव में लेकिन कुछ miss हो गया।” 
“जैसे ? ”
“न कोई घुसा है ,न कोई पोस्ट क़ब्ज़ा हुआ है, आपने कहा। फिर हमारे सैनिकों को किसने मारा ? क्या वे किसी दूसरे देश चले गये थे ?”, मिश्राजी ने पूछा । 
“ नहीं , वे Buffer Zone में शहीद हुए।”
“Buffer zone?” 
“यानि No Man’s Land”
“No Man’s Land ?” 
“वही Demilitarised Zone ”
“Demilitarised zone ? “
“वही , buffer zone” 
मिश्राजी कुछ हकबकाए से दिखे तो शुक्लाजी, जिन्हें  रीग्डवेद पर अटूट विश्वास था, टपक पड़े, 
“रीग्डवेद का मंत्र सदैव circular होता है, जहाँ से शुरू वहीं ख़त्म।जो है वो नहीं है ।हमारे जवान अपने घर में होते हुए भी नहीं थे। यह मंत्र समझ से ऊपर, निश्चल विश्वास पर अाधारित है”
मिश्राजी अब पूरी तरह से कनफूजिया गये,बोले,“रीग्डवेद में  दूबेजी , Buffer Zone क्या होता है ?”
“ जो है भी और नहीं भी ! जब सीमा का निर्धारण ही न हुआ हो तो क्या मेरा क्या तेरा, इसलिए कहा था कि कोई घुसा नहीं ।” तपाक से जवाब आया।
“ विरोधी कुछ और ही राग अलाप रहे है। कहते है 1914 से ही चीन McMahon line के दक्षिण क्षेत्र भारत का माना; गलवान ,हाट स्प्रिंग , पैनगौंग इसी क्षेत्र में हैं । 1960 में चीन ने जो सीमा रेखा खींचा और युद्ध के बाद जहाँ तक पीछे हटे उसके हिसाब से भी ये क्षेत्र भारत में पड़ते हैं।” मिश्राजी ने संशय प्रकट किया।
दूबेजी बोले, “ वह उनका LAC है , सीमाएँ जो उनके नियंत्रण में है।” 
“अच्छा, मामला अब LAC का है । Buffer zone के अन्दर या बाहर है ये LAC ?”
“बाहर। जैसे वनियान और शर्ट - एक अन्दर दूसरा बाहर।” दूबेजी ने समझाया। 

मिश्राजी असमंजस में पड़ गए, एक ही शरीर पर होते हुए कोई कैसे कहे बनियान मेरा पर शर्ट नहीं। अब उन्हें कुछ कुछ रीग्डवेद समझ में आने लगा - जो है वो नहीं है। इसलिए आहत भाव से कुछ और ही बोले,“पर चीनी गलवान को अपना कह रहे हैं । 1962 के इसी धरती की रक्षा में सैकड़ों जवान प्राण निछावर  किए, चीनीयों ने हमारी कई चौकियों को ध्वस्त किया,जवानों को पकड़ पकड़ कर निर्मम हत्या की।उनके ख़ून से सींची ज़मीन भी हमारी नहीं ? ”
“Disengagement हो रहा है, सेनाएँ दो-दो किलोमीटर पीछे हट रही हैं।”शुक्लाजी ने ढाढ़स बँधाया । 
मिश्राजी संतुष्ट नहीं दिखे, “यानी, हमारी LAC पीछे सरकेगी और उनकी आगे , क्योंकि वे पहले ही दस किलोमीटर आगे आ चुके थे ।हम अपनी LAC के अन्दर के कुछ अतिरिक्त क्षेत्र buffer zone में डाल देगें, वे नहीं , है न? इसी तरह चीन अकसई चिन युद्ध के पहले ही हड़प लिया था ।एक बात और , सेना buffer zone की बात करती हीं नहीं ।”
शुक्लाजी गलवान के मकडजाल से निकलने के लिए बोले, “ ये सब सेना पर छोड़ दें । डराईिंग रूम में बैठ कर हम और आप क्या जान सकते हैं ? “
“पर ये बातें तो इतिहास के पन्नों में लिखी है, डराईिंग रूम में बख़ूबी पढ़ी जा सकती है  । इसे सेना या राजतंत्र से ही जानने की विवशता नहीं होनी चाहिए।” मिश्राजी असहमत हुए। 
उनके दिमाग में एक और विचार कौंधा “ मान भी लिया जाए की गलवान buffer zone है फिर भी एक सवाल बना रहेगा ।Buffer zone  संभवत: रणभूमि बन सकती है , वह हमारे नियंत्रण वाले क्षेत्र में क्यों बने, हमारे दावे वाले क्षेत्र (McMahon line से दक्षिण क्षेत्र जो उनके LAC में  हैं ) में क्यों नहीं ? दोनों के सीमा दावों के बीच के क्षेत्र को buffer धोषित करना क्या और श्रेयकर नहीं होगा ?” 

शुक्लाजी सोच में पड़ गए, फिर बोले “ दिमाग पर ज़ोर मत डालिए, रीग्डवेद से कोई हल निकल आएगा, जैसे कोई घुसा नहीं का Buffer zone से सुलझा ।” 
“बस एक संशय और। अगर हमारे दावे के क्षेत्र buffer zone बने रहेगें तो अमित शाह का अकसई चिन सपना पूरा कैसे होगा? ” 
“कोई मुश्किल नहीं, जब वे MLAs थोक के भाव से खरीद सकते हैं तो अकसई चिन भी चीनीयों से ख़रीद लेगें। अमेरीका ने क्या अलास्का रूस से नहीं ख़रीदा ?” शुक्लाजी ने बात सँभाली । कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा, फिर मिश्राजी तड़पते हुए बोले,
“कुछ भी हो, रीग्डवेद विरोधियों पर लगाम लगाना ज़रूरी है। दुष्प्रचार करते रहते हैं , PM से अनाप शनाप प्रश्न करते है, आर्मी के कार्यकलापों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। प्रजातंत्र में कहीं ऐसा होता है ? मंझे प्रजातंत्र में चुने प्रतिनीधि राजपाठ चलाते हैं, प्रजा उनके दीर्घायु होने की कामना करते रहती है, बस। जवाब सवाल नहीं ।”
दूबेजी, “ जाने दीजिए बिलकुल अज्ञानी है, शिक्षा रीगवेद से प्राप्त करेंगें तो उदंन्ड होना स्वभाविक है ।उनके लिए रीग्डवेद पाठ अनिवार्य होना चाहिए ” 
“रीग्डवेद पर सभी आस्था रखें । राजतंत्र, सेना की बातें घोल कर पी लें, बाक़ी ढकार दें , अचूक मूलमंत्र है।अनभिज्ञता फैलाएं ताकि लोगों की उलजलूल सवाल करने की क्षमता जाती रहे। यही ध्येय  विस्तार और आत्मसात् योग्य है” । दूबेजी के ये प्रेरणादायी बोल सुन सभी सानन्द अपने घर को चल दिए । 

Tuesday, 7 July 2020

India-China Disengage at LOC-a Dilemma for ‘saffronists’

Special representatives of India and China finally got engaged to yet again agree to disengage troops at the border flash points. The raucous, intimidatory ‘nationalist’ brigade, aptly nicknamed  Bhakt , are subdued. They are in a fix whether to distribute ladoos and take out victory processions for Bharat Mata or continue with their bellicose public posturing. Their dilemma primarily stems from none other than the definitive assertion of Mr Modi, PM, in whom they see a Lord Krishna with Sudarshan Chakra incarnate, 

न कोई हमारी सीमा में घुसा है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है : नरेंद्र मोदी

For, if and when disengagement does take place ( it was agreed to earlier in the first week of May too)  the Chinese would be moving a step back within their ‘own’ territory by our PM’s assertion. In the fine prints of the separate communiques issued by the two sides one hears echoes of this affirmation. While the Chinese speak of peace and tranquility with resolve to protect sovereignty over their claimed territories , India does it sans reiteration of  its own territorial claims. It seeks refuge in the comforting obfuscation of semantics.  When the location of LAC itself  is in dispute , India’s call to respect LAC is just self-deluding diplomatese. It only reaffirms Chinese claims via the disowning statement of PM. 

Such an anomalous situation is also a gross insult to the memory of the brave jawans who fought valiantly to uproot Chinese structures in Galwan. It makes them intruders into Chinese territory rather than defenders of our Dharti Mata. Puts bhakts in a spot. Therefore what cheer can there be for bhakts in this disengagement. One does empathise with them. As if sitting on the horns of a dilemma wasn’t enough , China simultaneously claims land on Bhutan Ladakh border. 

Saturday, 4 July 2020

Life After Covid19

The veggie , fruit carts no longer do the rounds of mohalla lanes, and the neighbourhood grocer has discontinued home delivery. I must do the rounds of the markets for daily needs myself. A blessing in disguise for limbs attenuated by three months of enforced dormancy- they get exercised. It’s not all hunky dory, though. An ordeal follows. For the door is a Laxman Rekha , beyond lies the sinister embrace of Ravan. Only that in Kaliyuga he is called CORONA. Stepping over the threshold invisibly stamps the body - ‘Corona Smooched’. 

Like this one for real. I stand on the wrong side of the Laxman Rekha with a jhola full of fruits and vegetables. The doorbell ding dongs within. Wife opens the door and quickly steps a meter back. I park the jhola by the door for its nightly quarantine and look to her. See no ingratiating smile, only a face resolutely set, brows raised ,forehead creased and a finger pointing straight at the bathroom. I look piteous, dissipated. This would be my third visit of the day to that blasted room. On other days it’s just two. 

 A glimpse of the state-of-the-art existential truths seeping in as levers of lockdown unwind ! The old ways may not dissolve but it won’t resurrect in the same body. More likely, as a Coke de-fizzed, a deadlocked original unable to effervesce. Yet, nostalgia for pre-Covid days will grow upon us like craving for water in arid Sahara. Will the bygone carefree, carousing, idyllic, gregarious days return ? Let’s do some crystal ball gazing. 

 I see settling in a more pervasive, sinister, psychic pandemic - FEAR , that most primal of human instincts pandering to self-preservation. And tailing it its sororal mate - SUSPICION. Both colonising our subconscious mind and destined to play havoc with our old life styles. The singular attribute differentiating Covid from all others is its propensity to spread exponentially like an Australian bush fire. In just 12 days past mid -June, India added 2 lakh more Covid cases against a cumulative total of 3 lakh cases since its outbreak in December. That there are asymptomatic carriers too only deepens anxiety. How to know that the normally behaving man in front is not afflicted ? Fear and suspicion of Covid will be an overshadowing influence in all future human interactions. Our familiar comfort zones will be severely threatened. 

The enduring attribute of the future will be contact averseness. This will manifest in myriad ways. More and more of interactions will become virtual rather than real. Establishments will build an architecture of workspaces with Work-from-Home as its mainstay and oxygenation through online meetings, workshops, brainstorming sessions, and training. Those who do attend office will not drop into cubicles of their colleagues for tea. One can’t drink with masks on and unmasked men are Risky with a capital R. Much of pleasurable pursuits will be in the virtual space- online shopping , online entertainment, home delivery of food rather than eating outside, to name a few. Families will keep social visits to a bare minimal, and that too after due diligence about mutual Covid history of family members and their surrounds. The dread of dear ones coming home infected will continually haunt families. 

 Even people who have recovered from Covid will be looked upon with askance. Ok, he got well but the virus may still be in his body, who knows. The worst victims of suspicion will be the labourers returning to their temporarily abandoned workplaces. God knows how many potentially risky places they visited before showing up, keep a safe distance from them. 

 Phrases like ‘whispering in the ears’ , an ‘earful’ will become archaic. However, ‘Not distant yet distant’ will acquire a profound meaning. The future of the oldest profession in the world, prostitution, seems dim, very dim. As physical contact becomes increasingly verboten, Aristotle’s aphorism “man is by nature a social animal” will be tested. 

 Existing vigilante groups will lose big time. The anti-Romeo, anti-Valentine ,Love-jihad squads will not find couples walking shoulder to shoulder,hands in hand, or necking each other in public places. But vigilantism may see a recrudescence in a milder but more widespread form. Men will be unforgiving of those violating norms of social distancing or venturing out without masks and sanitisers. And they will publicly express their disapproval in more blunt ways than one. Even parking a car too close to another may invite censure. Incorrigible norms violating neighbours may be branded social reprobates and shunned. 

 Covid will have a psycholical say in international relations too. As hugging becomes passé Heads of State greetings will lose a bit of the ‘garamjoshi’ of old days. A handshake keeps shakers two arms length away exuding as little warmth as Birbal’s handi would get. A folded hands ‘namaste’ is better, just an arms length away oozing more warmth and exuding spiritual affinity. But a hug ? It’s hearty, heart to heart, a syncing of two heart beats ! Hot, Sublime, Ethereal. Our PM will sorely miss hugplomacy. When all the stops are out, hugplomacy will still be a non starter. 

 Not our enthusiasm for festivity, after all the Indian’s love for ‘tamasha’ is congenital. Though Covid spectre will not be a killjoy but it will moderate the manner in which we will express it. Weddings, anniversaries, birthdays celebs will be small time physical affair but grand online extravaganza via video conferencing. Many times more participants than in the actual event will Zoom in to virtually share in and demonstrate their joy and happiness from the confines of their homes. Even pirouette, carouse, gormandise in step with the progress of the physical ceremony for all to see. An explosive fervour away from the venue and spread over hundred of homes at hundred of places. As global as it can get. 

Breakdowns, disruptions, kinks in daily routines will become commonplace and taken in stride. The moment a school, college, or office detects Covid infection within its premises it will lockdown immediately sending inmates scurrying home to undergo , possibly , home quarantine. Restrictive procedures like Hot Spot, Containment, Red ,Orange and Green zones will frequently pepper chitchat and keep the cauldron of fear and suspicion boiling. Temperature checks will form an additional security layer for admittance to public places, offices, parks, theatres, sporting grounds and such other places. Annoying niggles. 

 A post Covid world will need to absorb hitherto unforeseen incremental costs. Continual sterilising of means of public transport, Offices, Halls, Malls, spacing out of parking slots, conducting IR thermometric 
tests, prophylactic and curative measures to prevent and combat Covid, many such supplemental costs will accrue. Already glimmers of the expected surge are visible. Wages of labour have gone up, including those of my housemaids. One reason could be the reluctance of migrant labourers to return to places they had to exit unceremoniously. 

 That means citizens will be intimately impacted in one other existential dimension- Higher Cost of Living

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